मुझे उदास रहने की आदत नहीं पड़ती। तन्हा रहने की भी नहीं। हालाँकि यहाँ कई विरोधाभास एक साथ महसूस होते हैं कि लोगों के बीच रहकर मैं ज़्यादा थक जाती हूँ। law of inertia के अनुसार, कोई भी वस्तु जब अपने नेचुरल स्टेट में नहीं रहती है तो वो इसलिए कि उसपर एक फ़ोर्स लगाया जा रहा होता है। लोगों के बीच रहना इसलिए थकाता है कि उनके बीच ख़ुश रहने की ऐक्टिंग करनी पड़ती है। आख़िर दुखता दिल लिए सबके सामने अपना दुखड़ा तो नहीं रोया जा सकता। रेणु की मृत्यु के बाद निर्मल ने उनपर एक लेख या संस्मरण जैसा कुछ लिखा था। इसे एक प्यारे दोस्त ने कुछ दिन पहले शेयर किया था। मैं इसे पढ़ते हुए इन पंक्तियों पर ठिठक गयी। निर्मल कहते हैं –
“किन्तु जिस चीज़ ने सबसे अधिक मुझे उनकी तरफ़ खींचा वह उनका उच्छल हल्कापन था. वह छोटे-छोटे वाक्यों में संन्यासियों की तरह बोलते थे और फिर शरमाकर हंसने लगते थे. उनका ‘हल्कापन’ कुछ वैसा ही था जिसके बारे में चेखव ने एक बार कहा था, ‘कुछ लोग जीवन में बहुत भोगते-सहते हैं- ऐसे आदमी ऊपर से बहुत हल्के और हंसमुख दिखाई देते हैं. वे अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपते, क्योंकि उनकी शालीनता उन्हें अपनी पीड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती हैं. रेणु ऐसे ही शालीन व्यक्ति थे. पता नहीं ज़मीन की कौन-सी गहराई से उनका हल्कापन ऊपर आता था. यातना की कितनी परतों को फोड़कर उनकी मुस्कुराहट में बिखर जाता था- यह जानने का मौका कभी नहीं मिल सका.”
‘वे अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपते, क्योंकि उनकी शालीनता उन्हें अपनी पीड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती है।’ मैं इस हिस्से को कई बार पढ़ती हूँ और सोचती हूँ, इसे कितने सुंदर शब्दों में निर्मल ने कहा है। क्या मैं ऐसी हो सकूँगी कभी? कि दूसरों को अपनी पीड़ा से बचा रखूँ। या कि सोचती हूँ, ऐसी ही तो हूँ मैं। कि कई कई दिन लोगों से ना मिलने, फ़ोन ना करने या सोशल मीडिया पर नहीं होने की वजह कई बार इतनी ही होती है। कि अपने दुःख को उल्था नहीं करना चाहती।
मैं अपने क़रीबी लोगों को दुःख की इसी विभीषिका से बचाना चाहती हूँ। कि मैं जो भूकम्पों और भूस्खलन वाला कोई द्वीप हूँ…किसी ऐक्टिव ज्वालामुखी को अपने सीने में लावा उगलने देती हूँ और कोशिश करती हूँ कि ये आँच ना पहुँचे किसी तक। मगर वे कौन लोग होते हैं जो मुझे बाँहों में भींचना चाहते हैं और अपनी रूह जला बैठते हैं।
उदासियाँ ख़ूबसूरत होती हैं। ख़ास तौर से दूसरों की। अपनों की उदासियाँ दुःख का दलदल होती हैं जो हमें खींच लेती हैं अंदर। मैं कोशिश करती हूँ और करते रहना चाहती हूँ कि मेरे किसे प्रिय व्यक्ति तक मेरा दुःख ना पहुँचे।
हाँ, लिखना ज़रूरी होता है। कि यूँ भी, कहते हैं कि दुःख कलाकार को माँजता है। उसे निखारता है। तो इसलिए हम दुःख को पूरी तरह ख़ुद से बाहर भी नहीं करते। ये एक सिम्बायआटिक रिश्ता होता है। अगर हमें पूरा पूरा सुख मिलता भी है तो हम वहाँ थोड़े से दुःख की जगह बचाए रखते हैं। ताकि हमारी क़लम चलती रहे।
जैसे उदासी हमारा नोर्मल स्टेट होता है, वैसे ही लिखना भी। बहुत आसान होता है लिखना, उदास होना और फिर लिखना। हम ख़ुश दिनों में नहीं लिखते। और जैसा कि सबकी ज़िंदगी में होता है, ख़ुश दिन कम होते हैं, उदास दिन ज़्यादा। इसलिए हम अक्सर और बहुत बहुत लिखते हैं।
कि अगर अभी भी पूछा जाए कि तुम बहुत ख़ुश होकर कभी नहीं लिख पाओ या कि थोड़ा ख़ुश होकर ज़्यादा उदास होते हुए लिखती रहो तो तुम क्या चुनोगी…तो अधिकतर दिन मैं उदासियों को ही चुनूँगी। ये और बात है कि ऐसा कोई सवाल पूछती नहीं है ज़िंदगी।
मैं क़रीने से सजी उदासियों के बीच खिलती हूँ। मैं तन्हाई का फूल हूँ। मुझे कोरे काग़ज़ में उगाया जाता है। मुझसे फ़ीरोज़ी स्याही की गंध आती है। मैं बहुत प्यार करती हूँ इस दुनिया से, अपनी ज़िंदगी से…और मुझे कोई शिकायत नहीं है।
ज़िंदगी उदार है। कविताओं जैसी।

उदासियो में , पीड़ा में ,जो भाव जागृत होते हैं सच में खुशनुमा पलों में नहीं | दुःख में ही लेखक का व्यक्तित्व साकार होता है पर उसकी अभिव्यक्ति करना उसके रचना कौशल पर निर्भर करता है |
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