Musings, Shorts

एक बहुत ही सुफ़ेद दोपहर थी। नीले आसमान और सफ़ेद बादलों वाली। चमकीली। हवा की खुनक यादों के साथ मिल कर जी को उदास कर रही थी। ये दिल्ली की फ़रवरी का मौसम था। इसी मौसम उसने पहली बार किसी से गुज़ारिश की थी, ‘मेरे साथ एक सिगरेट पिएँगे आप? प्लीज़’। एक सिगरेट बाँट के पीते हुए पहली बार उनकी उँगलियाँ छू गयी थीं। उसने याद करने की कोशिश की कि उसने कौन से कपड़े पहने थे। मगर चमकीली धूप में आँखें चुंधिया रहीं थीं और दिख नहीं रहा था कुछ साफ़। 

धूप पीली नहीं, एकदम सफ़ेद थी। उसने ईंट लाल सूती साड़ी पहनी थी। माथे पर बड़ी सी गोल बिंदी। आज शहर से दूर एक मंदिर जाने का प्रोग्राम था…उसका मूड बहुत अच्छा था। सब कुछ उसने सोच रखा था। मंदिर के पत्थर के किसी स्तम्भ से टिक कर बैठे रहना। पत्थर की गरमी। मंदिर से दिखता नंदी हिल्ज़। सामने का सीढ़ियों वाले कुंड का हरा पानी। मंदिर की गंध जिसमें अगरबत्ती का धुआँ, कपूर, गुलाब और बेली के फूल, और घी की मिलीजुली महक थी। वहाँ की शांति, हवा की हल्की सरसराहट। खुले बालों को पीछे करते हुए कलाई में काँच की चूड़ियों की खनक। सब कुछ उसकी आँखों के सामने था। गाड़ी की सारी खिड़कियाँ खोल कर गुनगुनाती हुयी ड्राइव कर रही थी वो कि तभी रास्ते में एक पागल ट्रक वाले ने कार पीछे से ठोक दी। सारा सपना किर्च किर्च बिखरा। वो अपने घबराए जी को सम्हाले हुए घर लौट आयी थी। मन की थकान थी कुछ। 

किताबों के साथ रहने पर तन्हाई का अहसास कुछ कम होता था। उसने बेड पर दो तीन किताबें बिखेर दीं। एक उपन्यास पढ़ना शुरू किया। हिंदी का ये उपन्यास बहुत दिन बाद फिर से उठाया था, दो तीन बार पढ़ने की कोशिश कर के रख चुकी थी। कश्मीरी केसर के ज़िक्र से उसे २००५ की कश्मीर ट्रिप याद आयी। केसर के फूलों वाले खेत। बैंगनी फूल और उनके अंदर केसर का रंग और उँगलियों के बीच रह गयी ज़रा सी उनकी ख़ुशबू। 

नींद नहीं आती दोपहरों में। जब दर्द की जगह नहीं मालूम हो तो दर्द बदन में नहीं, आत्मा में होता है। आँख से निकले आँसू अगर ज़मीन पर नहीं गिरते तो आत्मा में जज़्ब हो जाते हैं। उसका जी किया कि आत्मा को धूप भरी खिड़की पर परदे की तरह डाल कर सूखने के लिए छोड़ दे। 

थोड़ी किताब। थोड़ी याद। थोड़ा शहर। थोड़ा डर।

बहुत दिन बाद उसके मन में वाक्य उभरा। ‘मैं तुमसे प्यार करती हूँ’। ऐसा लगा कि वो अपनी ही कहानी का किरदार है कोई। उसे रूद्र की याद आयी। ऐसे जैसे कोई बहुत प्यारा खो गया हो ज़िंदगी से। उसने चाहा कि रूद्र वाक़ई में होता तो उसके सीने से लग कर रोती बहुत सा। उसे इतने दिन में पहली बार उस प्यार का अहसास हुआ जो रूद्र उससे करता है। जैसे धूप करती है उसकी आँखों से प्यार। एक गर्माहट की तरह। उसे अच्छा लगा कि उसने ऐसा कोई किरदार रचा है। 

उसे वो दोपहर याद आयी जब उसने पहली बार रूद्र की सुनहली आँखें देखी थीं। धूप उगाती आँखें। जो एक बार तुम पर पड़ें तो लगे कि तुम दुनिया की हर मुश्किल से लड़ सकते हो। उसे मालूम नहीं था उसकी आँखों का रंग कैसा होगा। उसने फ़ोन पर कैमरा ओपन किया तो उसकी नज़र पिछली दोपहर की खींची एक तस्वीर पर पड़ी। 

तब उसने जाना, आप प्रेम में उन किरदारों की तरह हो जाते हो जिनसे आपने प्यार किया है। 

जिन्होंने रूद्र को नहीं देखा है कभी, उसकी आँखें ऐसी दिखती हैं। मेरी आँखें भी। 

***

वसंत हमारा दुलरुआ मौसम है, हमसे उतना ही लाड़ करता है जितना हम उससे। जब बुलाते हैं चला आता है, कोई नख़रा नहीं, कोई शैतानी नहीं। कभी कोई साड़ी पहन लेते हैं पीली तो लगता है वसंत आया हुआ है। कभी आँखों में धूप उगने लगती है, अमलतास रंग में। हम ज़रा सा पलाश की लहक माँगते हैं मुस्कुराहटों के लिए और मन के बौराएपन को होलियाना कहते हैं। 

वसंत कभी कभी एक शहर होता है, जिसमें हम रहते हैं। 

***

उसके बदन में एक स्याह रग है 

उसके मन में एक स्याह राग बजता है इन दिनों। कोई मेघ मल्हार गाने की जगह राग दीपक छेड़ देता है। वीणा के तार पर उसकी साँवली उँगलियाँ थरथराती हैं। वो चाहती है कि कोई उसकी उसके माथे पर रखे बर्फ़ की ठंढी पट्टियाँ। कहानी का एक किरदार आता भी है दुनिया के दूसरे छोर से, लेकिन अचानक से शहर का मौसम बदल जाता है। बेतहाशा बारिश होती है। वो तपता बदन लिए छत पर है। लोहे की रेलिंग वाली सीढ़ियों पर भीगती रहती है जबतक कि बारिश का सारा पानी उसके बदन को छू कर भाप न बन जाए। 

रूद्र उसकी रॉयल एनफ़ील्ड का भी नाम है और उस किरदार का भी जिससे उसने ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा प्यार किया है। वो सोचती है, अगर आज कार की जगह एनफ़ील्ड से गयी होती तो ट्रक के इस ऐक्सिडेंट में जान जानी ही थी। वो चाहती है कि किसी ईश्वर का शुक्रिया अदा करे, लेकिन ईश्वर से उसे बाक़ी चीज़ें माँगनी हैं। फिर ईश्वर उसके साथ लुका छिपी का खेल खेल भी तो रहा है। कहाँ तलाशे ऐसा कोई अवतार जो सुन सके दुआयें। 

भर दिन सोचती रही उन चिट्ठियों के बारे में जो उसकी नोटबुक में रखी रहती थीं जो इस ट्रिप में भेज आयी है। कि उसके पास इन दिनों कोई अधूरी चिट्ठी नहीं है। धूप उसे थपकियाँ देती है मगर नींद नहीं आती। उसकी आधी नींद में काग़ज़ उगता है। चिट्ठियों की कोई नाज़ुक सी लता जिसमें पीले रंग के काग़ज़ वाले फूल खिलते हैं। 

क़िस्सों में एक दोपहर होती है। बिलकुल वैसी बचपन वाली जैसी दोपहरें अब सिर्फ़ कहानियों में मिलती हैं। वो कोई मीठी धुन गुनगुना रही है और पुदीना की पत्तियाँ चुन रही है। बहुत दिनों बाद कोई लम्हा है जो अपने घटते हुए भी लगता है कि हमेशा रहेगा। एक ठहरी सी दोपहर में। एक गुनगुनाहट की तन्हाई में। जैसे सिर्फ़ उसके लिए हो ये लम्हा। उसका अपना पर्सनल। वो मुट्ठी में लम्हा बंद करने की कोशिश करती है लेकिन सिर्फ़ एक गंध रहती है बाक़ी। वो हँसती है, जैसे कि उसे पागल हो जाने का डर ना हो। उसकी हँसी किसी के शर्ट के चेक्स में उलझ जाती है। जैसे बचपन में मैथ की नोट्बुक के छोटे छोटे स्क्वेयर में उसकी कविताएँ उलझ जाती थीं। कच्ची, अनगढ़ कविताएँ। वो चाहती है याद में कोई इंफिनिटी सिम्बल बनाना कि लम्हा कहीं ना जा सके। किरदार से पूछती है, मैं जो रचती हूँ तुम्हें, तुम्हें याद रहता है स्याही का रंग। किरदार की आँखें हल्की भूरी हैं। उसने अभी तक उसे हँसना सिखाया नहीं है, ना आवाज़ रची है उसकी। किरदार देखता है उसे और मुस्कुराता है। वो जानती है, उसे मर जाना है जल्दी। वो चाहती है। कह सके सारे किरदारों से। इत्मीनान से। प्यार है तुमसे। बहुत। लेकिन शब्दों को रिपीट ना करने का उसे ख़ुद से किया वादा याद आ जाता है। इसलिए कुछ किरदारों के हिस्से दुःख लिखती है, कुछ के हिस्से विसाल, कुछ के हिस्से शाम और बारिश…बस एक उसके हिस्से लिखने का मन करता है। प्यार। बहुत। 

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