इक रोज़ इस दुखती दुनिया को बर्दाश्त करना बहुत मुश्किल हो गया तो मैंने ईश्वर के नाम एक चिट्ठी लिखी और चूँकि ईश्वर का पता मुझे मालूम नहीं था, मैंने वो चिट्ठी एक कवि को भेज दी। मैंने उसे बहुत पढ़ा नहीं था लेकिन जितना पढ़ा था, उतने में वो अच्छा लगा था। अपना सा कोई। जैसे ३३ करोड़ देवी देवताओं में भी हम चुनते हैं अपने पसंद के देवाधिदेव, महादेव, शिव। दुनिया के इतने हज़ार कवियों में जैसे अचानक वो मिला। जब कि मैं कवि को नहीं, ईश्वर को ढूँढ रही थी।
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मुझ दो दुनियाओं में बसी हुयी स्त्री को इस बात का संतोष है कि मैंने तुम्हें इतना जानने के पहले इतना पढ़ा नहीं। वरना, कवि, तुमसे प्रेम होना तुम्हें जानने से इतर होता। तुम्हारे प्रेम में होते हुए तुम्हें जानती तो प्रेम करती तुमसे, तुम्हारी कविताओं के बावजूद। मेरी झूठी कहानी का सच्चा किरदार तुम सा नहीं होता।
मुझे इस बात की भी राहत है कि तुमने नहीं पढ़ी मेरी कच्ची कविताएँ और कोरी कहानियाँ। तुमने नहीं जाना उन शहरों के बारे में जिनसे मुझे प्यार है।
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मुझे बारिश बहुत पसंद है, कितनी बार मैंने दोस्त को सिर्फ़ बारिश की आवाज़ रेकर्ड कर के भेज दी है। मुझे नहीं मालूम, सिर्फ़ बारिश सुनने में कैसी लगती है। आज मैंने चिट्ठियों के लिए बने बक्से में हाथ डाला…फुहार सी थी अंदर, हथेली भर बारिश जमा हो गयी। किसी ने मेरे नाम बारिशें भेज दीं थी। इनमें कितनी लय थी, जैसे कोई रेलगाड़ी जा रही हो। दूर कूकती कोयल नाम ले रही हो किसी पुराने महबूब का। मैं सुनती रही बारिश की आवाज़। जाना पहली बार, बारिश मन के सारे गड्ढे समतल कर देती है। रिपीट पर सुना बारिश के उस टुकड़े को। कभी कभी यूँ भी लगा क्या हम सब महज़ एक बंजर खेत हैं, बारिश के इंतज़ार में।
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कवियों से हर कोई प्रेम करता है। अपनी अपनी परिभाषा में बाँध कर। हमें जिस क्षण इस बात कर डर लगता है कि हमें प्रेम हो जाएगा, हम अप्रेम की दहलीज़ लाँघ चुके होते हैं।
तुम्हें पढ़ना तुम्हारी प्रेमिकाओं से प्रेम करना है। तुम्हारे शहर का चौक चौबारा देखना है। तुम्हारे इष्टदेव के नाम तुम्हारी माँगी मन्नतों की पैरवी करना है।
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ये अच्छा है कि तुमने मुझे पढ़ा नहीं है। मुझे ज़रा भी जाना नहीं है। मुझे डर लगता है कि तुम अगर मुझे पढ़ोगे तो यूँ ही मेरे शब्दों से लिपट कर सोना चाहोगे रात को, जैसे मैं तुम्हारे शब्दों की छतरी ताने छत से बारिश देख रही हूँ, फ़िलहाल। लिखना हमारी आत्मा को एक्स्पोज़ करता है। लेकिन इसे देखने की नज़र सबके पास नहीं होती। उसकी चौंध से नॉर्मल इंसान की आँखों में विरह का बिरवा फूट पड़ता है। तुम लेकिन पढ़ लोगे मेरे लिखे में मेरी तन्हाई, मेरा अंतर्द्वंद, मेरा उदास शहर…तुम होना चाहोगे मेरे लिए शहर दिल्ली, मीठी कविताओं की किताब और इस शहर का ओढ़ा हुआ आसमान।
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प्रेम को समय की इकाई से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
वो लम्हे में भी उम्र भर जिए जाने लायक ऊष्मा दे सकता है। ऊर्जा दे सकता है।
और फिर एक लम्हे के प्रेम के बदले उम्र भर का दुःख भी दे सकता है, जिसकी चुभन जीते जी नहीं जाती।
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मैं सोचती हूँ तुम्हारी हँसी कैसी है।
बालकनी पर बैठे बारिश की शिकायत सुनते हुए तुम कैसी चाय पीना पसंद करते हो?
अब तुम्हें चिट्ठियाँ तो नहीं ही लिखूँगी।
सिगरेट पीते हो तुम?
और जो इत्ति सी बारिश भर इत्ता सा प्रेम लिखा तुम्हारे हिस्से, उसका क्या करोगे तुम?
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