तुम भी सोचते हो न, कि कुछ नहीं है तो इतना कुछ है…कुछ हुआ कितना ख़तरनाक होगा? डर लगता है तुम्हें इस अतिरेक से?
प्रेम की देहरी पर ठहरे होना ही बेहतर हो शायद। जाने कैसा हो प्रेम का घर…
उसपर, कितनी ही बेतरतीब है वो लड़की। उसके घर में कुछ भी ढंग का तो होगा नहीं। मौसम भी कैसे बेपरवाह होंगे, कभी बारिश, कभी धूप। उसका सुख बादल की तरह हल्का है, धुँधला…उसका दुःख सागर की तरह गहरा होगा ही…सांद्र। कि जिसमें तैरना आसान हो, शायद। मगर तूफ़ान आया तो डूबने से बचना नामुमकिन भी तो।
ना ना, प्रेम के लिए नहीं बने हैं हम। दो शहरों में होना बेहतर है। दो मौसमों में भी। एक साथ दोनों शहर में बारिश हुयी तो बह ही जाएँगे दोनों। एक शहर में होनी चाहिए बेतहाशा गरमी और दूसरे में बेतहाशा बारिश। इस तरह बैलेन्स बना रहेगा। एक हृदय में हो अथाह प्रेम और दूसरे में मुट्ठी भर विरक्ति।
लिखती तो होगी। अप्रेम। सोचती तो होगी तुम्हें। झूठ की कहानियों में रखती होगी सच्चे सपने। हथेली पर रखती होगी कच्चा क़िस्सा। बिना चीनी की चाय पीते हुए सोचती होगी तुम्हारी आँखों का रंग। या कि तुम्हारे शर्ट की पॉकेट में रखे कोरे काग़ज़ की ख़्वाहिश होगी उसकी?
लड़की। तुम सी, पर तुम्हारी नहीं।
लड़का। किस-सा, और तुम्हारा।
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