बहुत देर रात है। कि जिसके लिए परवीन शाकिर ने लिखा था, ‘रात के शायद एक बजे हैं, सोता होगा मेरा चाँद’। मैं मेहंदी हसन को सुन रही हूँ, ‘यूँ उठे आह उस गली से हम, जैसे कोई जहाँ से उठता है’। मीर की लिखी ग़ज़ल है। उदास रातों के लिए पर्फ़ेक्ट। हल्की नींद आ रही है लेकिन बहुत सी बातें एक साथ सोच रही हूँ तो सो नहीं पाऊँगी। कि जैसे मेहंदी हसन, ग़ुलाम अली, या कि नय्यरा नूर को ही नहीं सुनना दुःख के एक हिस्से से अनजान रह जाना है। इन आवाज़ों को सुन कर लगता है जैसे हमारा दुःख कोई पर्सनल ना होकर दुनिया भर का है। इससे मिलती राहत हमें जीने का हौसला देती है।
मैं बहुत कम लोगों से टच में रहती हूँ और ऐसा लगता है कि इन दिनों लोगों को दुःख नहीं होता है या कि वे दुःख से घबरा कर किसी टेम्पररी सुख की तलाश कर लेते हैं। हम दुःख को उसके सारे रंग में जीते आए हैं। हिज्र को भी। इश्क़ को भी। ‘मूव ऑन’ हमेशा हड़बड़ में क्यूँ हो…दुःख का भी तो कुछ हक़ है जीवन पर…हम कब तक इस तरह ख़ुद से लड़ते रहेंगे। ये ख़ुशी या कि सुख की तलाश कब ख़त्म होगी?
हम जिस घर में रहने जा रहे हैं, वो शहर से थोड़ा दूर है। मेन रोड से दूर, शोर से दूर। पहले देखने दिन में गए थे, आज रात में गए। वहाँ झींगुरों की आवाज़ आ रही थी। आसमान में चाँद और बादल दोनों थे। पूरी पूरी छत थी। एक ऐंपिथीयटर था जिसमें छोटी छोटी सीढ़ियाँ थीं और एक छोटा सा स्टेज था। कहानियाँ सुनाने के लिए वो बहुत अच्छी जगह है। यूँ ही बैठ कर कहानियाँ लिखने के लिए भी। बस ये है कि सिर्फ़ कहानियों के लिए इतनी दूर कोई भी नहीं आएगा।
मेरे दिमाग़ में हमेशा एक रोड ट्रिप प्लान होती रहती है। सोलो ट्रिप। एनफ़ील्ड से। खुली सड़कें। बहुत तेज़, बहुत तेज़। रेत। सफ़ेद नमक के खेत। धान की रोपनी के दृश्य। मैं जब छोटी थी तो गाँव में धान की रोपनी होती थी। मेरी याद में उस समय के कुछ गीत हैं। वे इतने धुँधले हैं कि मुझे ना शब्द याद है, ना धुन। बस वो एक धान के मुट्ठों से एक एक धान का पौधा अलगा कर मिट्टी में रोपना।घुटने से थोड़ी नीची साड़ी वाली औरतें। उनकी साड़ियों के रंग। मैं वो सब कुछ खोजती चलती हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि मैं बाईक से जाऊँगी तो शायद समय में पीछे जा सकूँगी।
मेरे ख़यालों का एक हिस्सा भविष्य में रहता है। न्यू यॉर्क में। मुझे किसी शहर ने ऐसे जादू से अपनी ओर नहीं खींचा है जैसे न्यूयॉर्क ने खींचा। दो दिन की ट्रिप में मैंने उस शहर को इतने रंग में जी लिया कि मेरी स्याही का रंग कभी फीका नहीं पड़ता। वे चटख रंग ऐसे हैं जैसे हलूसिनेशन होते हैं ड्रग लेने के बाद।
प्यार। मेरी धमनियों में दौड़ता प्यार। नाम के धुँधले अक्षर। स्पर्श का टैटू, त्वचा पर। कितने सारे अलविदा। दिल्ली की मेट्रो पर। ट्रैफ़िक सिग्नल पर। पंजों पर उचक कर लगाना किसी को गले कि जैसे कई जन्मों के लिए बिछड़ रहे हैं। देर रात बैंगलोर की सड़कों पर कार चलाते हुए गुनगुनाना कोई ग़ज़ल। कहना उसे आख़िर में। तुम्हें अब मेरे शहर से जाने की इजाज़त है।
मैं किस चीज़ की बनी हूँ जानां…कहो ज़रा…
आज की रात लगता है, मैं अलविदा की बनी हूँ।