अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं
ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं
~ जां निसार अख़्तर
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रात बहुत चुप्पी होती है। झींगुर जाने क्या क्या गुनगुनाते रहते हैं, या कि भुनभुनाते रहते हैं कि उनके हाथ में कुछ नहीं होता। बेमौसम बारिश होती है। धूप नहीं निकलती। मैं देर रात सोसाइटी के भीतर टहलते हुए चाह रही हूँ कि कहीं से मुट्ठी भर आवाज़ें चुन लूँ। कोई गीत का टुकड़ा, किसी सीरियल का डाइयलोग, किसी के गुनगुनाने की बेसुरी धुन, पानी की टपटप, पूल में बहते पानी की म्यूटेड लय…लेकिन कुछ सुनाई नहीं देता इस ओर। यहाँ शब्द नहीं हैं। लोग नहीं। हँसी नहीं।
फ़ोन में इतना स्पेस है। कितनी तस्वीरें हो सकती हैं लेकिन मैं क्लिक नहीं करती। गाने नहीं सुनती हूँ नए। तुम्हारी स्माइली कितने दिन से नहीं आयी। ब्लू टिक्स नहीं लगे। मेरा पिछला मेसेज वैसे रखा हुआ है बंद दरवाज़े की साँकल में फँसायी गयी चिट्ठी के जैसा।
एक दिन नियत करना है, तुम्हें याद करके भुलाने की कोशिश के लिए। उसके बाद किताबों में डूब कर मर जाऊँगी।
ढेर सारा प्यार।