‘मुझे मरने की थोड़ी जगह चाहिए।’
अगर तुम इसे मेरी आवाज़ में सुनते तो पाते कि मैंने ‘थोड़ी’ पर ज़ोर दिया है। बचपन से दी गयी सीख के मुताबिक़, जितनी ज़रूरत है, उससे ज़्यादा माँगने की मेरी आदत नहीं रही। मैं कहाँ कह सकूँगी तुमसे कि किसी चिट्ठी की आख़िरी लाइन में मेरे लिए थोड़ी जगह रहे, कि मैं मरने के पहले वाली आख़िर चिट्ठी में लिख सकूँ, ‘ढेर सारा प्यार’ तुम्हारे नाम, और मर सकूँ। तुमने जाने कौन अधूरी चिट्ठी लिख रखी है मेरे नाम, कि मेरे मरने के बाद भेजोगे। तुम्हारी किसी कहानी में कोई छोटा सा किरदार लिखो मेरे नाम, कि जिसकी मृत्यु से न तुम्हारे उपन्यास के मुख्य किरदार को कोई तकलीफ़ पहुँचे, ना तुम्हें। एकदम साधारण मृत्यु। जब कि जीवन के सारे अधूरे काम पूरे कर लिए गए हों, जब कि ख़्वाहिशों का कोई नया हरा बिरवा ना उगा हो। किसी एक लम्हे जब कि हम ज़िंदगी से भरे भरे हों।
ज़िंदगी में ख़ुशी कितनी दुर्लभ होती है। कि मैं कोशिश करते हुए भी पाती हूँ कि किसी किताब में बंद कर के नहीं रख सकती ख़ुशी की चमकीली किरण को। किताब बंद होते ही सब अँधेरा हो जाता है।
मैं तुम्हें मिस करती हूँ। अपनी तन्हाई और उदासी में। अपनी बेगुनाही में। अपने मन के सादेपन में।
मैं जानती हूँ कि मैं अपना उपन्यास क्यूँ पूरा नहीं कर पा रही हूँ। क्यूँकि ज़िंदगी की बाक़ी कहानियों के सच हो जाने जैसी ही है ये कहानी भी। कि इसके बाद मेरे हिस्से सांसें बहुत कम बचेंगी।
यहाँ बाँस के पेड़ों का झुरमुट है जिससे हवा चलती है तो आवाज़ मुझे अपने बचपन में खींच कर ले जाती है। मैं अपने बचपन के क्लास्मेट्स से मिलती हूँ कई सालों बाद। अच्छा लगता है देर तक बातें करना।
कुछ लोगों की बहुत कमी महसूस होने लगी है इन दिनों। बस मेरे कहने से कोई भी तो लौट नहीं आता। इतनी एक्स्ट्रीम तन्हाई अब बहुत ज़्यादा दुखती है। तुम जाने कहाँ हो। लौट आओ। मेरे क़िस्सों के शहर तुम्हारा इंतज़ार करते हैं।