आज सुबह नींद खुली और आदतन फ़ोन की ओर हाथ नहीं गया। कि आदत सिर्फ़ बनने में ही वक़्त नहीं लगता, छूटने में भी तो वक़्त लगता है। रोज़ लगता था कि आज सुबह फ़ोन में तुम्हारा मेसेज होगा। कि तुमने कुछ कहा होगा। कोई तस्वीर होगी। कोई कविता का टुकड़ा होगा। कोई वजह होगी। कई सालों की आदत थी। लेकिन शायद आज दिल ने आख़िरकार मान लिया कि कोई मेसेज नहीं होगा। इस तरह उम्मीद टूट जाती है। इंतज़ार चुक जाता है।
अब हम बात करेंगे भी तो उस रोज़ की तरह नहीं जैसे पिछले कुछ सालों से करते आ रहे थे। कि हर ख़ुशी में तुम्हारा हिस्सा निकाल के रख देना ज़रूरी नहीं लगेगा। हर ख़ूबसूरत चीज़ को तुमसे बाँटने की हूक नहीं सालेगी। होगा ये सब भी, धीरे धीरे होगा।
यूँ तुम्हें भुलाने को हज़ार तरीक़े हैं। काम है, पढ़ना लिखना है, घूमने की जगहें हैं, कोई नया शौक़ पाल सकती हूँ, इस घर में तो गमले ही इतने हैं कि फूल लगा दूँ तो हज़ार रंगो में भूल जाऊँगी तुम्हारी आँखों का रंग… बहुत कुछ है जिससे ख़ुद को इस तरह व्यस्त रखा जा सके कि तुम्हारी याद नहीं आए। हालाँकि ऐसे व्यस्त रहने के बावजूद याद जिन दिनों आती है, उन दिनों आ ही जाती है। लेकिन ज़िद्दी मन ऐसा कुछ करना नहीं चाहता था। उसे तुम्हारी मौजूदगी का आश्वासन चाहिए था। तुम्हारी ज़रूरत थी। मुझे ऐसे ज़िंदगी नहीं चाहिए जिसमें लोग नहीं हों। मुझे ऐसे सुख नहीं चाहिए जिनके बारे में हुलस कर किसी को फ़ोन नहीं किया जा सके।
कि फ़िलासफ़ी पढ़ने से समझ में आ जाती है सारी चीज़ें भी। गीता का ठीक से अध्ध्ययन करने से समझ में आएगा, ‘नष्टोमोह’। लेकिन मुझे वैसी ज़िंदगी नहीं चाहिए। ‘रहने दो हे देव, अरे यह मेरा मिटने का अधिकार’ की तरह, मेरे लिए मेरा ये चोटिल और नाज़ुक मन ज़रूरी है जो प्रेम कर सकता हो। प्रेम में टूट सकता हो। मैं निष्ठुर नहीं होना चाहती। हर बार टूट कर भी फिर जुड़ने की क्षमता ही जिजीविषा है। मैं मोह-माया छोड़ना नहीं चाहती। जीवन जीने भर को प्रेम की चाह क्या बहुत ज़्यादा है?
ख़ुश रहने की किताब मिलती है बाज़ार में। एक ऐसी किताब है, हैप्पीनेस हायपोथेसिस, उसमें लिखा है कि अगर कोई रिश्ता टूटा हो और आप इस बात पर यक़ीन करना चाहते हैं कि जीवन प्रेम के बिना ही बेहतर है तो आपको फ़लसफ़े पढ़ने चाहिए। उसी किताब में लिखा है कि जब आपको प्रेम हुआ हो और आप प्रेम के अतिरेक में हों, तो आपको कविता पढ़नी चाहिए।
मैं कविता हमेशा ही पढ़ती हूँ। कविता मेरा घर है। मैं उस तक लौट कर आती हूँ थोड़े सुकून की तलाश में। मेरे सिरहाने हमेशा कविता की किताबें रहती हैं। मेरे हर बैग में कमोबेश एक ना एक कविता की किताब ज़रूर ही। मैं प्रेम में ही होती हूँ, हमेशा। अतिरेक ठीक ठीक नहीं मालूम।
लेकिन तड़प कर किसी ईश्वर से तुम्हें माँगने का मन नहीं करता। आने वाले को और जाने वाले को कौन रोक सका है। मैं दुःख के साथ विरक्ति भी महसूस करती हूँ। मेरे जीवन में तुम्हारी जगह इतनी ही थी। एक मौसम की तरह। जाड़ों का मौसम। कि तुम्हारे आने पर थोड़ी सी गरम कॉफ़ी की ज़रूरत और थोड़ी थरथराहट महसूस हुयी।
मुझसे कहते थे कुछ लोग, तुम्हें छोड़ कर कैसे रह लेते हैं लोग। तुमसे भी कोई रिश्ता तोड़ सकता है! अचरज होता था मुझे पहले भी। अब नहीं होता। अब तो मालूम होता है कि ऐसा ही होगा। अब डर लगता है। हर नए व्यक्ति से बात करने में एक दूरी बना के रखती हूँ। कभी थोड़ा जुड़ाव लगता भी है तो जान बूझ कर कुछ दिन बात करना बंद कर देती हूँ। टूटते टूटते कितना ही हौसला रखें कि ख़ुद को सम्हाल लेंगे। फिर लोगों में इतनी तमीज़ कहाँ होती कि अलविदा कह के जाएँ ज़िंदगी से दूर। जब तुम जा सकते हो बिना अलविदा कहे हुए, तो अब हमको किसी से कोई उम्मीद करनी ही नहीं है।
दुःख तुम्हारे जाने का है। बदला अपने दिल से और पूरी दुनिया से लेंगे।