कई गुनाहों की सज़ा नहीं होती, लेकिन होनी चाहिए। मेरा बस चले तो जिन्होंने तुम्हारी ब्लैक एंड वाइट तस्वीरें उतारी हैं, उन कम्बख़तों को गोली मार दूँ। कि ये क्या ज़ुल्म है कि हम सोचें कि तुम्हारी आँखों का रंग कैसा है, हलकान होएँ, सो न पाएँ रात भर? जाने कितना वक़्त बीतेगा कि फिर देख सकेंगे तुम्हें जनवरी के किसी दिन, शायद हल्की धूप और मुहब्बत वाले शहर में। कहाँ हमारी मजाल कि चूम सकें तुम्हारी आँखें…कि सोच भी सकें ऐसा कुछ… कि इतने सालों में इस बार पहली बार तुम्हारे बाल छुए थे, वो भी बहाने से…गुलमोहर के पत्ते बेमौसम झर रहे थे और तुम्हारे बालों में उलझ गए थे…मैंने कितनी हिम्मत जुटायी होगी और कहा होगा तुमसे…ज़रा झुकना…तुम्हारे बालों में पत्ते उलझ गए हैं। कि ऐसा तो कर नहीं सकती कि उचक कर उँगलियाँ फिरो तुम्हारे बालों को यूँ ही बिगाड़ दूँ और हँस पड़ूँ…मेरी इतनी मजाल कहाँ। मैं सोचती हूँ तो मेरी उँगलियाँ खिलखिला उठती हैं, उन्हें गुदगुदी होती है उस एक लम्हे को याद कर के…इतने दिन बाद भी। कितने ख़ूबसूरत हैं तुम्हारे बाल। दिलचोर एकदम।
मैं कभी कभी तुम्हारे शहर का आसमान होना चाहती हूँ।
मुझे रंग कन्फ़्यूज़ करते हैं। कितनी बार कोशिश की है कि कलर में शूट करूँ लेकिन बीच में फिर मोनोक्रोम पर शिफ़्ट कर ही जाती हूँ। अमलतास को ब्लैक एंड वाइट में शूट करना एक्स्ट्रीम बेवक़ूफ़ी है। क्या ही करें हम। प्यार न करें अमलतास से…शूट न करें? फिर? पेंट करें अमलतास…उँगलियों को पीले रंग में डुबो कर कुछ धब्बे सफ़ेद कैनवास पर। जैसे तुम्हारी आँखें याद आती हैं। धूप में वसंत की हल्की गर्माहट लिए हुए।
सुबह आँख खुलती है तो तुम याद आते हो और रात को आँखों में थकान और तुम, दोनों लड़ रहे होते हो, ‘साड्डा हक़ ऐत्थे रख’ चीख़ते हुए।
जानां। मैं कभी कभी तुम्हारी कविताएँ पढ़ती हूँ…मेरी आवाज़ में वो थोड़ी कमसिन लगती हैं। जैसे मैंने तुम्हें सोलह की उम्र में चाहा हो।
कभी इक लम्बा ख़त लिखना…मेरे इंतज़ार सा तवील और मेरी मुहब्बत सा मुकम्मल…
लव यू।