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मेरे पास फूल और तितलियों के सिवा कुछ भी नहीं है।

ज़िंदगी के किसी मोड़ पर हम खड़े होते है और देखते हैं कि हमारे पास शायद वो सब कुछ है जो हमने किसी उम्र में चाहा होगा। फिर लगता है कि वो ख़ुशी कहाँ गयी जिसका कि हमने ख़ुद से वादा किया था। उदासी कैसे फ़ितरत का हिस्सा बनती चली गयी और भूल गए कि बेवजह ख़ुश होना कोई इतनी अजीब बात नहीं थी। 

कब होता है कि हम अपने सबसे क़रीबी लोगों की ख़ुशी देखते देखते भूल जाते हैं कि हमें ख़ुद का ख़याल ख़ुद से रखना पड़ता है। रखना चाहिए। कि हमारी ख़ुशी का ख़याल रखे कोई… ऐसा नहीं होता है। हमने इतने दिनों में आदत बना ली है कि किसी के ऊपर अपनी ख़ुशी के लिए निर्भर नहीं रहेंगे। 

कि अब भी आइने के सामने खड़े हो कर ख़ुद से पूछो कि तुम्हें किस चीज़ में ख़ुशी मिलती है तो जवाब अब भी सिर्फ़ एक होगा… लिखने में। जैसे बाक़ी लोग छुट्टियाँ मनाने जाते हैं… हम उस तरह लिखते हैं। इस दुनिया के नियमों से अलग… इस दुनिया के दुखों से दूर। कुछ अपनी पसंद के लोगों के पास… कुछ अपने बनाए शहरों में। 

और जानां… इन दिनों ऐसा लगता है कि तुम मेरे शहर का रास्ता भूल चुके हो। इतने हज़ार सालों में अगर इक मुहब्बत है जिसे मैं अब भी अपने क़िस्सों के शहर में अधूरा देखती हूँ तो वो हमारी ही है…

मुझे कभी कभी लगता है कि मैं ही भूल गयी हूँ अपने क़िस्सों के शहर का रास्ता… और चूँकि तुम भी लिखते हो, सोचती हूँ पूछ लूँ… कुछ दिन तुम्हारे क़िस्सों के शहर में पनाह मिलेगी?

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