अधिकतर शहर पुराने गाँवों के ऊपर बसाए गए थे। ग्रामदेवताओं का भव्य मंदिर कहाँ, वे अपने भक्तों की तरह सीधे-सादे हुआ करते थे। किसी पुराने पीपल या बरगद किनारे, खेतों के पास खुले में पिंड होता था अक्सर। कभी कभी बिना मुंडेर का कुआँ, एक बाल्टी या कि रस्सी से बँधा हुआ लोटा। किसी औरत ने साड़ी के आँचल से ज़रा टुकड़ा फाड़ के बाँध दिया, बस मनौती रजिस्टर हो गयी। नया अन्न उपजा तो पहली मुट्ठी देवता के हिस्से रखी, इसी में देवता प्रसन्न थे। सुख हमेशा नहीं था, लेकिन संतोष था। जब खेत नहीं रहे, गाय-गोरू नहीं रहे तो ग्राम देवता की क्या ज़रूरत। लोक-कथाओं में रचे बसे देवताओं ने कभी शहर की नागरिकता नहीं ली। शहर ने कभी उनके सामने सर नहीं झुकाया।
शहर की नींव में अक्सर धँसे रहते कुपित ग्रामदेवता। वे बुलाते तूफ़ानों की कि हो सके शहर नेस्तनाबूद और उन्हें साँस लेने को हवा और थोड़ा सा आसमान मिले। इक वक़्त के बाद सारे शहर मिट्टी हो जाना चाहते।
इतरां अपने स्कूल में इसी तरह के तूफ़ान बुलाना सीख रही थी। उसके हिस्से के ग्रामदेवता थोड़े कम कुपित थे कि उस शहर में नदी रास्ता बदल बदल कर बहती थी और ग्रामदेवता की मूर्ति आधी ही धंसी थी बालू में। साल के अधिकतर महीने उस थोड़ी सी दिखती मूर्ति पर शहर के बच्चे अक्सर फूल चढ़ा जाते। कभी कभी मन्नत भी माँग लेते। तो ग्राम देवता का दिल थोड़ा सा इस शहर के प्रति नर्म था। लेकिन बाक़ी शहरों के साथ ऐसा नहीं हो सका था।
शहरों के ग्रामदेवता स्त्रियों के स्वप्न में आते। स्त्रियाँ उठतीं और तूफ़ान में बदल जातीं। नेस्तनाबूद शहर इनका नाम सदियों याद रखता।