Musings

पलाश से जल सकती हैं हथेलियाँ…वो उँगलियों पर छूटा रंग नहीं आग होती है। 

कुछ दिनों से बंदिश बैंडिट्स के गीत ‘विरह’ को लूप में सुन रही हूँ। दिन व्यस्त रहता है बेतरह। रात आती है तो इस तरह थकान होती है कि अक्सर कुछ सुनने समझने का माइंडस्पेस नहीं रहता। कई दिनों से कुछ पढ़ा-लिखा नहीं था। लेकिन बंदिश बैंडिट्स में इस गीत को गाते हुए अतुल कुलकर्णी को देखते हुए फिर से वैसा ही महसूस हुआ जैसा किसी कमाल की कविता को पढ़ते हुए या किसी कमाल की पेंटिंग को देख कर लगता है। हमारी आत्मा कला की भूखी होती है। ऐसा कुछ मिलता है तो लगता है तृप्ति हुयी। वरना हम बस जी रहे होते हैं। 

कल रात बहुत दिन बाद थोड़ी एनर्जी थी तो वॉक पर निकल गयी। साढ़े ग्यारह बज रहे थे, अधिकतर घरों में कोई लाइट भी नहीं जल रही थी। नोईज कैन्सेलेशन ऑन करने के बाद बाहर की कोई आवाज़ भीतर नहीं पहुँचती। विरह लूप में बज रहा था। मुझे कई सारे लोगों के साथ की आख़िरी मुलाक़ात याद आयी। ये वो सारे लोग थे जिनसे अलग होते हुए ऐसा नहीं लगा था कि अब जाने कब मिलेंगे, मिलेंगे भी या नहीं। ज़िंदगी बहुत अन्प्रेडिक्टबल है लेकिन अचानक से कोई सामने आ जाए, ऐसा इत्तिफ़ाक़ कम होता है। 

मेट्रो स्टेशन पर किसी को अलविदा कहते हुए अजीब महसूस होता है। काँच की खिड़की से पीछे छूटते लोग। उन्हें देख कर बहुत दूर तक हाथ नहीं हिला सकते। वे आँखों के सामने से ओझल हो जाते हैं जैसे कि फ़िल्मों में कोई नया शॉट वाइप हो कर आए। ये अजीब रहा कि जिन बहुत प्यारे लोगों से विदा कहा था वो हमेशा ट्रेन स्टेशन के पास था। किसी का दौड़ कर ऑफ़िस जाते हुए एकदम ही पलट कर देखना। हम हर महीने गिना करते थे कि दिल्ली जाने में इतना वक़्त बचा है। पुस्तक मेला ख़त्म होते ही इंतज़ार शुरू हो जाता था। पिछली बार दिल्ली गयी थी तो जाने जैसे बहुत इत्मीनान हमारे हिस्से था। मिलने में इत्मीनान और विदा कहने में भी इत्मीनान। ट्रेन स्टेशन पर ट्रेन का इंतज़ार करना किसी को विदा कहने के लिए तैय्यार कर देता है। लेकिन फिर भी जब ट्रेन छूट रही होती है और दूर तक दरवाज़े से हिलता हुआ हाथ दिखता है तो हौल उठता है सीने के बीच। हम ख़ुद को कोस भी नहीं पाते किसी को इतना प्यार करने के लिए। इस दुःख में एक अजीब सी ख़ुशी है…एक नशा है। इतना गहरा प्यार कर पाने की अभी भी हिम्मत बची हुयी है। 

कल एक प्यारे दोस्त से बात कर रही थी, वो कह रहा था कि बीस की उमर के बाद प्यार होता ही नहीं है। उसका अनुभव है। मैंने कहा कि प्यार तीस में भी होता है और चालीस में भी और हर बार वैसा ही लगता है जैसे सोलह की उमर में लगा था। प्यार को वाक़ई उम्र से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। हम जिन लोगों से कभी बहुत गहरा प्यार कर लेते हैं तो उसकी छाप आत्मा से पूरे जीवन नहीं जाती। ऐसा नहीं होता है कि उनसे बात करते हुए दिल सम पर धड़क सके…वो हमेशा दुगुन में न भी हो तो ड्योढ़ा तो चलता ही है। मुझे गाते हुए सबसे मुश्किल लगता था ड्योढ़ा में गाना…दुगुन, तिगुण सब हो जाता था…शायद आधी मात्रा का बहुत झोल है। प्रेम हो कि इश्क़ सब आफ़त इसी ढाई मात्रा की है…शतरंज में भी सबसे ख़तरनाक घोड़े की चाल होती है कि उसे कोई रोक नहीं सकता। अपने हिस्से के ढाई घर चलने से…इसी तरह प्रेम भी अपना घर देख कर क़ाबिज़ हो जाता है। दिग्विजय गा रहा है तो कैमरा सब पर ठहरता है, प्रेमिका के पति पर, उसके बेटे पर, देवर पर…ससुर जो गुरु हैं, उनपर भी…लेकिन कैमरा को उस स्त्री से प्रेम है जिसके विरह में यह गीत आत्मा के तार सप्तक तक पहुँचता है। 

विरह की हल्की आँच से हथेलियाँ गर्म हो जाती हैं। पसीजी हथेली…उँगलियों से क़लम फिसलती रहती है…दुपट्टे हल्का आँसू से गीला है…उसी में उँगलियाँ बार बार पोंछ रहे हैं…चिट्ठी तो लिखनी है, न भेजें तो क्या हुआ। जिसने कभी मार्च में गर्म हुयी हथेलियों का पसीना पोंछते पोंछते चिट्ठी न लिखी हो तो क्या ख़ाक प्रेम किया।

पलाश के इस मौसम तुम्हारी कितनी याद आती है तुम जानो तो समझो कि पलाश का जंगल कैसे धधकता है। सीने में कई साल सुलगता है ऐसा विरह। कहानी, कविता, चिट्ठी…स्याही से और भड़कती है आग। सिकते हैं हम भीतर भीतर। सिसकते भी। मुट्ठी में भर लो, तो पलाश से जल सकती हैं हथेलियाँ…वो उँगलियों पर छूटा रंग नहीं आग होती है। 

तुम न ही करो ऐसा प्यार। तुम कलेजा ख़ाक कर लोगे एक बार में ही। तुम बस कच्ची कोंपल का हरा देखो। वसंत और पतझर एक साथ आए जिस दिल में उससे तो दूर ही रहो। होली आ रही। मन फगुआ रहा। कभी कभी अचानक तुम्हारे शहर पहुँच जाने का कैसा मन करता है तुम्हें क्या बताएँ। तुम ख़ुश रहो मेरी जान! तुम पर सब ख़ुशी के रंग बरसें। प्यार। 

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