हर चीज़ की एक क़ीमत होगी। ये रुपयों में हो, ज़रूरी नहीं, कभी कभी समय भी बहुत मुश्किल से मिलता है। और कुछ चीजें समय माँगती हैं। होली के दो दिन पहले, मैंने बहुत दिन बाद एक फ़िल्म देखी। वो भी पूरी एक सिटिंग में। सुबह के पाँच साढ़े पाँच बज गए सोते सोते। फ़िल्म देखना तो बहुत अच्छा लगा लेकिन अगला दिन पूरा ही लगभग बर्बाद हो गया। मैं इतनी थकी हुई थी कि कुछ और कर नहीं साक़ी। रंग ख़रीदने थे, पिचकारी। होली के लिए और भी कुछ घर का राशन वग़ैरह लाना था।
फ़िल्म का नाम है ‘96। सिम्पल सी फ़िल्म है। लेकिन ऐसे लम्हे जुड़े हैं कि एक के बाद एक सीधे दिल पर चोट लगती जी जाती है। बाद के समय में मैं जितनी मुखर रही प्रेम को लेकर, ये इमैजिन करना मुश्किल होता है कि पहली बार कोई अच्छा लगा था तो उससे कुछ भी कहना कितना मुश्किल था। फिर छोटे शहरों में किसी के प्रति कुछ महसूस करना यानी आपके बिगड़ने के दिन आ गए। चाहे कितने भी अच्छे मार्क्स आ जाएँ, डाँट तो खूब पड़ेगी ही अगर घर में बात पता चली तो। स्कूल में बाक़ी बच्चे चिढ़ाएँगे, सो अलग। पहली बार कोई अच्छा लगता है तो हम बहुत कमजोर सा महसूस करते हैं, क्यूँकि चीजें हमारे हाथ से एकदम निकल जाती हैं। उसका एक नज़र देखना, उसका राह चलते मिल जाना या कि कभी क्लास में कॉपी देते हुए ज़रा सा हाथ छू भर जाना। कितना मुश्किल होता है उससे कुछ भी कहना।
उन दिनों कहाँ सोचा था कि फ़ेस्बुक या Orkut जैसी कोई चीज होगी और हम बाद में मिलेंगे भी। तब तो ऐसा ही लगा था कि अब शायद ज़िंदगी में फिर कभी भी नहीं मिलेंगे। गर्मी की छुट्टियाँ कितनी बुरी लगती थीं। सारी छुट्टियाँ बुरी लगती थीं। लेकिन सबसे बुरा लगता था कि जो हमें इतना पसंद है, उसे हम रत्ती भर भी नहीं पसंद। उस समय का हिला हुआ कॉन्फ़िडेन्स वापस आने में कितना वक़्त लग गया।
फ़िल्म देखते हुए मुझे खूब रोना आया। लगभग पूरी फ़िल्म में ही। इस तरह किसी के लिए कुछ महसूस करना और न कह पाना। उस उम्र में कितना दुखता है, जिसपर बीती है, उसे ही मालूम होगा। तब तो ये भी नहीं समझ में आता है कि प्यार अभी कई बार और होगा। इतनी समझ होती तो फिर भी कम दुखता, उस वक्त भी। फ़िल्म देखते हुए मैं एकदम से उस चौदह पंद्रह साल की उम्र में थी और शायद इसलिए इतना रोना आया कि आयडेंटिफ़ाई कर पा रही थी किरदार से। छोटी छोटी चीजों से बुनी हुई फ़िल्म है। डिटेलिंग कमाल की है। पानी के नल के नीचे हाथ लगा कर पानी पीना, पानी पीने के बाद नल को धोना ऐसी चीजें हैं जो हम सबने की हैं, अपने 90s में।
फ़िल्म में गाने भी बहुत सुंदर हैं। बैक्ग्राउंड म्यूज़िक भी। फ़िल्म देखने के बाद तमिल थोड़ा सीखने का भी मन किया। हालाँकि तमिल या कभी कभी मलयालम देखते हुए भी, कुछ शब्द तो समझ आ ही जाते हैं क्यूँकि संस्कृत के शब्द होते हैं। जैसे कि कन्नड़ में पानी को नीर बोलते हैं। कुछ मोमेंट्स पर ऐसे शब्द भी आए, ऐसे मोमेंट्स भी आए कि लगा कि इतना सीधे असर कैसे कर सकती है कोई चीज़। किसी के गले तक न लगना। किसी का हाथ तक न पकड़ना। और फिर भी इतना प्यार करना। क्या पागलपन है। क्या बेवक़ूफ़ी है। बचपना इसी को कहते हैं।
कुछ साल पहले अपने पहले क्रश से मिली थी। एक कॉफ़ी शॉप में। यूँ उसे बैंगलोर आए हुए काफ़ी टाइम भी हो गया था, उसने एक आध बार बोला भी मिलने को। लेकिन मैंने कभी हाँ नहीं कहा। उस दिन पता नहीं क्या मूड हुआ, उसको बोले कि मिलते हैं। बोलने के दस मिनट बाद ही लगा कि बेकार बोल दिए। फिर फ़ोन करके बोले कि रहने दो, तो बोला कि अब तो हम आधे रास्ते आ गए हैं। हम उसको बोले कि मिलते हैं, उसी समय सीधे लैप्टॉप बंद किया, बॉस को बोला कुछ ज़रूरी काम है और निकल गया। हम हड़बड़ में जींस टी शर्ट पहन के नहीं चले गए। साड़ी पहने। एक सुंदर सी फूलों वाले प्रिंट की ऑफ़ वाइट साड़ी थी। जूड़ा बनाया, घर से निकलते हुए दरवाज़े पर खिले फूल दिखे, तोड़ कर बाल में बोगनविला के फूल लगा लिए।
वो सर्प्राइज़्ड था। उसने सोचा नहीं था मैं साड़ी पहनूँगी। उन दिनों मैं अक्सर साड़ी पहना करती थी। घर से बाहर जाने के लिए तो अधिकतर ही। उसे कॉफ़ी नहीं पसंद थी, लेकिन बोला तुम्हारे पसंद की पी लेते हैं। दालचीनी वाली कॉफ़ी। पी कर बोला, कॉफ़ी नहीं अच्छी लगती है, पर ये वाली लग रही है। हम काफ़ी देर बात करते रहे। उस दिन पहली बार रियलाइज हुआ कि हम अच्छे दोस्त हुआ करते थे एक टाइम, लेकिन जब से उसपर क्रश हुआ था, हमारी बातचीत तक़रीबन कभी नहीं हुई। उसके बाद सीधे उस दिन मिले और बात कर रहे थे। खूब सारी बातें। ज़िंदगी, मुश्किलें, यार-दोस्त। बहुत कुछ। लगा कि प्यार के कारण एक अच्छा दोस्त खो गया था। लेकिन मालूम तब भी था कि प्यार में होने के कारण आगे कभी दोस्ती हो भी नहीं पाएगी। दिल जो होता है कमबख़्त, कभी नॉर्मल नहीं होता है पूरा पूरा। हमेशा उसके होने पर थोड़ा सा तेज धड़कता ही है।
प्यार में होने की क़ीमत अक्सर दोस्ती होती है। हमारे यहाँ इसलिए अधिकतर लोग डरते हैं। कि एक अच्छा दोस्त खो बैठेंगे। लेकिन उसके लिए जिस तरह से हम सोचते हैं, बिना उसकी ज़िंदगी में मौजूद रहे भी, उसकी कोई क़ीमत तो नहीं होती। किसी को दुआ में हमेशा रखते हैं…
’96 ग़ज़ब फ़िल्म है। आप देखिए। शायद आपको पसंद आएगी। बाक़ी हमारा क्या है, ऐसा कुछ होता है जिसका क़िस्सा न बनता हो हमारी ज़िंदगी में। हाँ हो सके तो तमिल में देखिएगा, अंग्रेज़ी सब्टायटल्ज़ के साथ। हिंदी में डबिंग में कई सारी बारीकियाँ ग़ायब हो गयी हैं।
🙂 समय मिले तो फिर सुनाएँगे।
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