Musings, Shorts, Stories

इक उसी जादूगर के पास है, इंतज़ार का रंग। उसके पास हुनर है कि जिसे चाहे, उसे अपनी कूची से छू कर रंग दे इंतज़ार रंग में। 

शाम, शहर, मौसम… या कि लड़की का दिल ही। 

एकदम पक्का होता है इंतज़ार का रंग। बारिश से नहीं धुलता, आँसुओं से भी नहीं। गाँव के बड़े बूढ़े कहते हैं कि बहुत दूर देश में एक विस्मृति की नदी बहती है। उसके घाट पर लगातार सोलह चाँद रात जा कर डुबकियाँ लगाने से थोड़ा सा फीका पड़ता है इंतज़ार का रंग। लेकिन ये इस पर भी निर्भर करता है कि जादूगर की कूची का रंग कितना गहरा था उस वक़्त। अगर इंतज़ार का रंग गहरा है तो कभी कभी दिन, महीने, साल बीत जाते है। चाँद, नदी और आह से घुली मिली रातों के लेकिन इंतज़ार का रंग फीका नहीं पड़ता। 

एक दूसरी किमवदंति ये है कि दुनिया के आख़िर छोर पर भरम का समंदर है। वहाँ का रास्ता इतना मुश्किल है और बीच के शहरों में इतनी बरसातें कि जाते जाते लगभग सारे रंग धुल जाते हैं बदन से। प्रेम, उलाहना, विरह…सब, बस आत्मा के भीतरतम हिस्से में बचा रह जाता है इंतज़ार का रंग। भरम के समंदर का खारा पानी सबको बर्दाश्त नहीं होता। लोगों के पागल हो जाने के क़िस्से भी कई हैं। कुछ लोग उल्टियाँ करते करते मर जाते हैं। कुछ लोग समंदर में डूब कर जान दे देते हैं। लेकिन जो सख़्तज़ान पचा जाते हैं भरम के खारे पानी को, उनके इंतज़ार पर भरम के पानी का नमक चढ़ जाता है। वे फिर इंतज़ार भूल जाते हैं। लेकिन इसके साथ वे इश्क़ करना भी भूल जाते हैं। फिर किसी जादूगर का जादू उन पर नहीं चलता। किसी लड़की का जादू भी नहीं। 

तुमने कभी जादूगर की बनायी तस्वीरें देखी हैं? वे तिलिस्म होती हैं जिनमें जा के लौटना नहीं होता। कोई आधा खुला दरवाज़ा। पेड़ की टहनियों में उलझा चाँद। पाल वाली नाव। बारिश। उसके सारे रंग जादू के हैं। तुमसे मिले कभी तो कहना, तुम्हारी कलाई पर एक सतरंगी तितली बना दे… फिर तुम दुनिया में कहीं भी हो, जब चाहो लौट कर अपने महबूब तक आ सकोगे। हाँ लेकिन याद रखना, तितलियों की उम्र बहुत कम होती है। कभी कभी इश्क़ से भी कम। 

अधूरेपन से डर न लगे, तब ही मिलना उससे। कि उसके पास तुम्हारा आधा हिस्सा रह जाएगा, हमेशा के लिए। उसके रंग लोगों को घुला कर बनते हैं। आधे से तुम रहोगे, आधा सा ही इश्क़। लेकिन ख़ूबसूरत। चमकीले रंगों वाला। ऐब्सलूट प्योर। शुद्ध। ऐसा जिसमें अफ़सोस का ज़रा भी पानी न मिला हो। 

हाँ, मिलोगे इक उलाहना दे देना, उसे मेरी शामों को इतने गहरे रंग के इंतज़ार से रंगने की ज़रूरत नहीं थी। 

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मेरे पागल हो जाने का सब सामान इसी दुनिया में है।

तुमसे मुहब्बत… खुदा ख़ैर करे… जानां, मुझे तो तुम्हारे बारे में लिखने में भी डर लगता है। कुछ अजीब जादू है हमारे बीच कि जब भी कुछ लिखती हूँ तुम्हारे बारे में, हमेशा सच हो जाता है। कोई ऑल्टर्नट दुनिया जो उलझ गयी है तुम्हारे नाम पर आ कर…डर लगता है, लिखते लिखते लिख दिया कि तुम मेरे हो गए हो तो… या कि लो, आज की रात तुम्हारे नाम… या कि किसी शहर अचानक मिल गए हैं हम…क्या करोगे फिर?

यूँ ही ख़्वाहिश हुयी दिल में कि हर बार मुझे ही इश्क़ ज़्यादा क्यूँ हो… कभी तो हो कि चाँदभीगे फ़र्श पर तड़पो तुम और ख़्वाब में बहती नदी के पानी के प्यास से जाग में जान जाती रहे…

के बदन कहानियों का बना है और रूह कविताओं से … मैं तुम्हारे शब्दों की बनी हूँ जानां… तुम्हारी उँगलियों की छुअन ने मुझमें जीवन भरा है…किसी रोज़ जान तुम्हारे हाथों ही जाएगी… इतना तो ऐतबार है मुझे…

तुम इश्क़ की दरकार न करो…बाँधो अपना जिरहबख़्तर… भूल जाओ मेरे शहर का रास्ता…भूल जाओ मेरे दिल का रास्ता। लिखती हूँ और ख़ुद को कोसने भेजती हूँ। कि ऐसा क्यूँ। तुम्हारी ख़ातिर…इश्क़ में थोड़ा तुम भी तड़प लो तो क्या हर्ज है। मगर तुम्हारी तड़प मुझे ही चुभती है…कि मेरे हिस्से की नींद तुम्हारे शहर चली गयी है और उन ख़्वाबों में मुझे भी तो जाना था… तुम जाने किस मोड़ पर इंतज़ार कर रहे होगे…

मेरी हथेलियों में प्यास भर आती है। ऐसा इनके साथ कभी नहीं होता… कभी भी नहीं, सिवाए तब कि जब बात तुम्हारी हो। मेरे हाथों को वरना सिर्फ़ काग़ज़ क़लम की दरकार होती है… छुअन की नहीं… किसी भी और बदन की नहीं। तो फिर कौन सा दरिया बहता है तुम्हारे बदन में जानां कि जिसे ओक में भर पीने को रतजगे लिखाते हैं मेरे शहर में। मैं डरती हूँ इस ख़याल से कि तुम्हें छूने को जी चाहता है… तुम्हें छू लेना तुम्हें काग़ज़ के पन्नों से ज़िंदा कर कमरे में उतार लाना है…तुम ख़यालों में हो फिर भी तुम्हारे इश्क़ में साँस रुक जाती है…तुम मूर्त रूप में आ जाओगे तो जाने क्या ही हो… मैं सोच नहीं पाती… मैं सोचने से डरती हूँ। तुम समझ रहे हो मेरा डर, जानां?

तुम्हें चूमना पहाड़ी नदी हुए जाना है कि जिसका ठहराव तुम्हारी बाँहों के बाँध में है…मगर फिर लगता है, तुम्हें तोड़ न डालूँ अपने आवेग में… बहा न लूँ… मिटा न दूँ… कि जाने तुम क्या चाहते हो… कि जाने मैं क्या लिखती हूँ… 

कि देर रात अमलतास के पीछे झाँकता है चाँद… मैं सपने में में तलाश रही होती हूँ तुम्हारी ख़ुशबू…हम यूँ ही नहीं जीते इश्क़ में बौराए हुए।

के जानां, मेरे पागल हो जाने का सब सामान इसी दुनिया में है। 

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मेरे मरने पर मेरा पता पब्लिक कर देना कि वे सारी चिट्ठियाँ मुझ तक पहुँच सकें जिन पर मेरा हक़ है। मुझे यक़ीन है कि बहुत सी चिट्ठियाँ होंगी मेरे हिस्से की…बहुत से अधूरे क़िस्से होंगे जो लोगों को सुनाने होंगे… बहुत सा प्रेम होगा, अनकहा। बहुत से सवाल होंगे जिनके जवाब सिर्फ़ मेरे पास हैं। फिर कितने शहरों की मिट्टी होगी… कितने मौसमों का ब्योरा होगा… और शायद एक उसका ख़त भी तो, जिसने कभी मेरे जीते जी मेरे खतों का जवाब नहीं दिया। बहुत सा कुछ होगा। आधा। अधूरा। कच्चा। कि सब कहते हैं, तुम्हारे ख़तों का जवाब देना नामुमकिन है। शायद इक आख़िरी बार कहनी हो किसी को कोई बात… शायद अलविदा… शायद फिर मिलेंगे… मुझे नहीं मालूम क्या…

बस इतना कि बहुत से पेंडिंग ख़त हैं मेरे हिस्से के…और कि वे सब आएँगे, इक रोज़।

मुझे उन अनगिन चिट्ठियों की चिता पर ही जला देना।

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मेरे पास फूल और तितलियों के सिवा कुछ भी नहीं है।

ज़िंदगी के किसी मोड़ पर हम खड़े होते है और देखते हैं कि हमारे पास शायद वो सब कुछ है जो हमने किसी उम्र में चाहा होगा। फिर लगता है कि वो ख़ुशी कहाँ गयी जिसका कि हमने ख़ुद से वादा किया था। उदासी कैसे फ़ितरत का हिस्सा बनती चली गयी और भूल गए कि बेवजह ख़ुश होना कोई इतनी अजीब बात नहीं थी। 

कब होता है कि हम अपने सबसे क़रीबी लोगों की ख़ुशी देखते देखते भूल जाते हैं कि हमें ख़ुद का ख़याल ख़ुद से रखना पड़ता है। रखना चाहिए। कि हमारी ख़ुशी का ख़याल रखे कोई… ऐसा नहीं होता है। हमने इतने दिनों में आदत बना ली है कि किसी के ऊपर अपनी ख़ुशी के लिए निर्भर नहीं रहेंगे। 

कि अब भी आइने के सामने खड़े हो कर ख़ुद से पूछो कि तुम्हें किस चीज़ में ख़ुशी मिलती है तो जवाब अब भी सिर्फ़ एक होगा… लिखने में। जैसे बाक़ी लोग छुट्टियाँ मनाने जाते हैं… हम उस तरह लिखते हैं। इस दुनिया के नियमों से अलग… इस दुनिया के दुखों से दूर। कुछ अपनी पसंद के लोगों के पास… कुछ अपने बनाए शहरों में। 

और जानां… इन दिनों ऐसा लगता है कि तुम मेरे शहर का रास्ता भूल चुके हो। इतने हज़ार सालों में अगर इक मुहब्बत है जिसे मैं अब भी अपने क़िस्सों के शहर में अधूरा देखती हूँ तो वो हमारी ही है…

मुझे कभी कभी लगता है कि मैं ही भूल गयी हूँ अपने क़िस्सों के शहर का रास्ता… और चूँकि तुम भी लिखते हो, सोचती हूँ पूछ लूँ… कुछ दिन तुम्हारे क़िस्सों के शहर में पनाह मिलेगी?

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कहते हैं, change is the only constant. इस दुनिया में कुछ भी हमेशा एक जैसा नहीं रहता। चीज़ें बदलती रहती हैं। जो हमारे लिए ज़रूरी है…वो भी ज़िंदगी के अलग अलग मोड़ पर बदलता रहता है। हम भी किन्हीं दो वक़्त में एक जैसे कहाँ होते हैं। फिर बदलाव हमें पसंद भी हैं…वे ज़िंदगी को मायना देते हैं। एक थ्रिल है कि कुछ भी पहले जैसा कभी दुबारा नहीं होगा। 

लेकिन फिर भी। हम चाहते हैं कि कुछ चीज़ें न बदलें। कुछ रिश्ते, कुछ लोग हमारे बने रहें। कुछ चीज़ों के कभी न बदलने का भरोसा हमें राहत देता है। घर, परिवार, कुछ पुराने दोस्त, बचपन की कुछ यादें… जैसे मेरा बचपन देवघर में बीता। मैं वहाँ तक़रीबन ११ साल रही। पूरी स्कूलिंग वहीं से की। वहाँ मिठाई की एक दुकान है – अवंतिका। इतने सालों में भी वहाँ मिलने वाले रसगुल्लों का स्वाद जस का तस है। इसी तरह कभी कभार बस से गाँव जा रहे होते थे तो बेलहर नाम की जगह आती थी जहाँ पलाश के पत्ते के दोने में रसमलाई मिलती थी। सालों साल उसका स्वाद याद रहा और उस स्वाद को फिर तलाशते भी रहे। वहाँ हमारे एक दूर के रिश्ते के भाई रहते थे… मुन्ना भैय्या। बिना मोबाइल फ़ोन वाले उस ज़माने में हम जब भी वहाँ से गुज़रे… वो हमेशा वहाँ रहते थे। एक दोना रसमलाई लिए हुए। मुझे उनकी सिर्फ़ एक यही बात सबसे ज़्यादा याद रही। अब भी कभी गाँव जाने के राते बेलहर आता है लेकिन अब भैय्या वहाँ नहीं रहते और कौन जाने किस दुकान की रसमलाई थी वो। देवघर से दुमका जाने के रास्ते में ऐसे ही एक जगह आती है घोरमारा/घोड़मारा… वहाँ सुखाड़ी साव पेड़ा भंडार था जिसके जैसा पेड़ा का स्वाद कहीं नहीं आता था। जब सुखाड़ी साव नहीं रहे तो उनकी दुकान दो हिस्से में बँट गयी – उन के दोनों बेटों ने एक एक हिस्सा ले लिया। लेकिन वो पेड़े का स्वाद बाँटने के बाद खो गया और फिर कभी नहीं मिला। 

मेरी स्मृति में खाने की बहुत सी जगहें हैं। हर जगह के साथ एक क़िस्सा। हम लौट कर उसी स्वाद तक जाना चाहते हैं… कि माँ के जाने के बाद ज़िंदगी में एक बड़ी ख़ाली सी जगह है… माँ के हाथ के खाने के स्वाद की… या बचपन की… कभी कभी घर जाती हूँ और दीदियाँ कुछ बनाती हैं तो लगता है, शायद… ऐसा ही कुछ था… या कि चाची के हाथ का कुछ खाते हैं तो। लेकिन कभी कह नहीं पाते उनसे… कि कुछ दिन हमको मेरे पसंद का खाना बना के खिला दीजिए। 

मेरा एक क़रीबी और बहुत प्यारा दोस्त था। जैसा कि सब दोस्तों के बीच होता है इस टेक्नॉलजी की दुनिया में… हमारे दिन की पूरी खोज ख़बर एक दूसरे को रहती थी। हम किसी शहर में हैं… हम किसी ख़ूबसूरत आसमान के नीचे हैं… हम किसी समंदर के पास हैं। सोशल मीडिया पर जाने के पहले वे तस्वीरें पर्सनल whatsapp में जाती थीं। मेरी भी, उसकी भी। आज उसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर देखीं। ये किसी ब्रेक ऑफ़ से ज़्यादा दुखा। 

हम नहीं जानते कि कब हम किसी से दूर होते चले जाएँगे। किसी की ज़िंदगी में हमारी प्रासंगिकता कम हो जाएगी, हमारी ज़रूरत कम हो जाएगी और हमसे लगाव कम हो जाएगा। ये नॉर्मल है। इससे ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ना चाहिए। लेकिन जो चाहिए, वो हो पाए…इतनी आसान कब रही है ज़िंदगी। हमें मोह हुआ रहता है। हम कुछ चीजों को यथासम्भव एक जैसा रखना चाहते हैं। कुछ चीज़ों को। कुछ रिश्तों को। 

अक्सर जब हम सबसे ज़्यादा अकेला महसूस करते हैं तो हम सिर्फ़ किसी एक व्यक्ति को याद कर रहे होते हैं। सिर्फ़ किसी एक को। बस उसके न होने से पूरी दुनिया वाक़ई ख़ाली लगती है। किसी और के होने न होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। ऐसा अक्सर उन लोगों के साथ होता है जिनकी ज़िंदगी में लोग थोड़े कम हों… ऐसे में किसी के होने की विशिष्टता इतनी ज़्यादा बढ़ जाती है कि उसके जैसा कोई भी महसूस नहीं होता। उसके आसपास तक का भी नहीं। हम उस रिश्ते को निष्पक्ष भाव से देख कर उसका आकलन नहीं कर पाते हैं। हम बाइयस्ड होते हैं। 

इस ख़ाली जगह को सिर्फ़ किताबों या सफ़र से भरा जा सकता है। थोड़ा सा खुला आसमान कि जो किसी पुरानी इमारत पर जा कर ख़त्म होता हो। थोड़ा सा किसी खंडहर का एकांत। कुछ चुप्पे किरदार जो दिमाग़ में ज़्यादा हलचल न मचाएँ। हम पुराने शहरों में ही पुराने लोगों को भूल सकते हैं। पुराने रिश्ते जब पुरानी इमारतों के इर्द गिर्द टूटते हैं तो उनका टूटना थोड़ा ज़्यादा स्थाई भी होता है और दुखता भी कम है। इसलिए पुरानी दिल्ली से आ कर मुझे साँस थोड़ी बेहतर आती है। 

सोचती हूँ…तुम्हें भुलाने के लिए किस शहर का रूख करूँ… फिर शायद वहाँ की तस्वीरें कहीं पर भी पोस्ट न करूँ… क्या ही फ़र्क़ पड़ता है कि आसमान का रंग कैसा था या कि पत्थर में कितनी धूप रहती थी। 

मैं भी तो बदल रही हूँ तुम्हारे बग़ैर। चीज़ों को सहेजने की ख़्वाहिश मिटती जा रही है। कि तुम मेरी ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा क़ीमती थे। पता नहीं, तुम्हें भी क्या ही सूझी होगी जो किसी रोज़ यूँ ही चले आए मेरी ज़िंदगी में। अब जब इसी तरह यूँ ही चले भी गए हो तो तुम्हारे बिना सब चीज़ें फ़ालतू और बेकार लगती हैं। क्या ही रखें कहीं। क्या लिखें। क्यूँ। किसके लिए?

अगर सब कुछ खो ही जाता है…खो ही जाना है इक रोज़ तो मैं भी चुप्पे चली जाऊँ न…
अलविदा कहना शायद तुम्हें भी नहीं आता है।