Musings, Shorts, Stories

दुनिया के कई शहरों के सबसे उदास हिस्सों को मिला कर एक शहर रचा गया। कहीं की अनथक बारिश, कहीं का सर्द समंदर, कहीं का निविड़ एकांत, कहीं युद्ध की विभीषिका तो कहीं की आकस्मिक, प्राकृतिक आपदाएँ। एक तरह का शरणार्थी शिविर, ठीक ऐसा जहाँ कोई ज़्यादा दिन रहना न चाहे। अपने अपने घरों से उजड़ कर कई नर्म दिल लोग यहाँ आए। गुज़रते वक़्त के साथ इस शहर की तासीर उन्हें बदल देती। सर्द और क्रूर के बीच कांपते हुए अपना स्थान तलाशते अस्थिर ही रहे, बस नहीं पाए। 

उदासी की धुन्ध फैलती है मेरे इर्द गिर्द। बेतहाशा बारिश होती है इस बेहद ठंडे शहर में। पतझर के बाद के पेड़ों पर सिर्फ़ काली, जली हुयी सी शाखें बची हैं। तापमान शून्य से नीचे नहीं गिरता वरना बर्फ़ का रूमान इस उदासी को शायद विदा कर देता। शाम फीकी, बेरंग होती है। सूरज कई कई दिन तक बाहर नहीं निकलता। कुछ दिखता नहीं है धुन्ध के पार। 

ठंड जब बहुत ज़्यादा हो जाती है तो हेड्फ़ोन पर तुम्हारी कोई कविता प्ले कर देती हूँ। तुम्हारी आवाज़ एक फर वाला गर्म कनटोप है, जिससे गुज़र कर ठंड मुझे छू नहीं सकती। ज़रा सी तुम्हारी आवाज़ और मिल सकती तो उसके दस्ताने बुन लेती। मेरी हथेलियाँ गर्म होतीं तो तुम्हें चिट्ठी भी लिख पाती। 

तुम्हारी आवाज़ की तासीर बेहद गर्म है। ज़रा सा कॉफ़ी पर बुरक देती हूँ, दालचीनी पाउडर के साथ। कितना बचा बचा कर ख़र्च करना पड़ता है तुम्हारी आवाज़ को, कौन बताए तुम्हें। कभी जो देर तक बातें करते मुझसे कि मैं इस बात से डरती नहीं कि ख़त्म हो जाएगी मर्तबान में रखी तुम्हारी एक छटाँक आवाज़। 

यूँ इस शहर को छोड़ कर जा सकती हूँ मैं, मगर मुझे अक्सर लगता है कि तुम्हारे दिल का माहौल कुछ ऐसा ही होगा। शरणार्थी शिविर जैसा। वहाँ बसने को न सही, कुछ दिन ज़िंदा बचने की ख़ातिर ही इस उदासी की आदत हो जाए तो बेहतर। 

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अधिकतर शहर पुराने गाँवों के ऊपर बसाए गए थे। ग्रामदेवताओं का भव्य मंदिर कहाँ, वे अपने भक्तों की तरह सीधे-सादे हुआ करते थे। किसी पुराने पीपल या बरगद किनारे, खेतों के पास खुले में पिंड होता था अक्सर। कभी कभी बिना मुंडेर का कुआँ, एक बाल्टी या कि रस्सी से बँधा हुआ लोटा। किसी औरत ने साड़ी के आँचल से ज़रा टुकड़ा फाड़ के बाँध दिया, बस मनौती रजिस्टर हो गयी। नया अन्न उपजा तो पहली मुट्ठी देवता के हिस्से रखी, इसी में देवता प्रसन्न थे। सुख हमेशा नहीं था, लेकिन संतोष था। जब खेत नहीं रहे, गाय-गोरू नहीं रहे तो ग्राम देवता की क्या ज़रूरत। लोक-कथाओं में रचे बसे देवताओं ने कभी शहर की नागरिकता नहीं ली। शहर ने कभी उनके सामने सर नहीं झुकाया। 

शहर की नींव में अक्सर धँसे रहते कुपित ग्रामदेवता। वे बुलाते तूफ़ानों की कि हो सके शहर नेस्तनाबूद और उन्हें साँस लेने को हवा और थोड़ा सा आसमान मिले। इक वक़्त के बाद सारे शहर मिट्टी हो जाना चाहते। 

इतरां अपने स्कूल में इसी तरह के तूफ़ान बुलाना सीख रही थी। उसके हिस्से के ग्रामदेवता थोड़े कम कुपित थे कि उस शहर में नदी रास्ता बदल बदल कर बहती थी और ग्रामदेवता की मूर्ति आधी ही धंसी थी बालू में। साल के अधिकतर महीने उस थोड़ी सी दिखती मूर्ति पर शहर के बच्चे अक्सर फूल चढ़ा जाते। कभी कभी मन्नत भी माँग लेते। तो ग्राम देवता का दिल थोड़ा सा इस शहर के प्रति नर्म था। लेकिन बाक़ी शहरों के साथ ऐसा नहीं हो सका था। 

शहरों के ग्रामदेवता स्त्रियों के स्वप्न में आते। स्त्रियाँ उठतीं और तूफ़ान में बदल जातीं। नेस्तनाबूद शहर इनका नाम सदियों याद रखता।

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इक उसी जादूगर के पास है, इंतज़ार का रंग। उसके पास हुनर है कि जिसे चाहे, उसे अपनी कूची से छू कर रंग दे इंतज़ार रंग में। 

शाम, शहर, मौसम… या कि लड़की का दिल ही। 

एकदम पक्का होता है इंतज़ार का रंग। बारिश से नहीं धुलता, आँसुओं से भी नहीं। गाँव के बड़े बूढ़े कहते हैं कि बहुत दूर देश में एक विस्मृति की नदी बहती है। उसके घाट पर लगातार सोलह चाँद रात जा कर डुबकियाँ लगाने से थोड़ा सा फीका पड़ता है इंतज़ार का रंग। लेकिन ये इस पर भी निर्भर करता है कि जादूगर की कूची का रंग कितना गहरा था उस वक़्त। अगर इंतज़ार का रंग गहरा है तो कभी कभी दिन, महीने, साल बीत जाते है। चाँद, नदी और आह से घुली मिली रातों के लेकिन इंतज़ार का रंग फीका नहीं पड़ता। 

एक दूसरी किमवदंति ये है कि दुनिया के आख़िर छोर पर भरम का समंदर है। वहाँ का रास्ता इतना मुश्किल है और बीच के शहरों में इतनी बरसातें कि जाते जाते लगभग सारे रंग धुल जाते हैं बदन से। प्रेम, उलाहना, विरह…सब, बस आत्मा के भीतरतम हिस्से में बचा रह जाता है इंतज़ार का रंग। भरम के समंदर का खारा पानी सबको बर्दाश्त नहीं होता। लोगों के पागल हो जाने के क़िस्से भी कई हैं। कुछ लोग उल्टियाँ करते करते मर जाते हैं। कुछ लोग समंदर में डूब कर जान दे देते हैं। लेकिन जो सख़्तज़ान पचा जाते हैं भरम के खारे पानी को, उनके इंतज़ार पर भरम के पानी का नमक चढ़ जाता है। वे फिर इंतज़ार भूल जाते हैं। लेकिन इसके साथ वे इश्क़ करना भी भूल जाते हैं। फिर किसी जादूगर का जादू उन पर नहीं चलता। किसी लड़की का जादू भी नहीं। 

तुमने कभी जादूगर की बनायी तस्वीरें देखी हैं? वे तिलिस्म होती हैं जिनमें जा के लौटना नहीं होता। कोई आधा खुला दरवाज़ा। पेड़ की टहनियों में उलझा चाँद। पाल वाली नाव। बारिश। उसके सारे रंग जादू के हैं। तुमसे मिले कभी तो कहना, तुम्हारी कलाई पर एक सतरंगी तितली बना दे… फिर तुम दुनिया में कहीं भी हो, जब चाहो लौट कर अपने महबूब तक आ सकोगे। हाँ लेकिन याद रखना, तितलियों की उम्र बहुत कम होती है। कभी कभी इश्क़ से भी कम। 

अधूरेपन से डर न लगे, तब ही मिलना उससे। कि उसके पास तुम्हारा आधा हिस्सा रह जाएगा, हमेशा के लिए। उसके रंग लोगों को घुला कर बनते हैं। आधे से तुम रहोगे, आधा सा ही इश्क़। लेकिन ख़ूबसूरत। चमकीले रंगों वाला। ऐब्सलूट प्योर। शुद्ध। ऐसा जिसमें अफ़सोस का ज़रा भी पानी न मिला हो। 

हाँ, मिलोगे इक उलाहना दे देना, उसे मेरी शामों को इतने गहरे रंग के इंतज़ार से रंगने की ज़रूरत नहीं थी। 

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तुम्हारा घर होना है।

‘मुझे अभी ख़ून करने की भी फ़ुर्सत नहीं है’। 

उसने हड़बड़ में फ़ोन उठाया, हेलो के बाद इतना सा ही कहा और फ़ोन काट दिया। मुझे बहुत ग़ुस्सा आया… कि उसे फ़ोन काटने की फ़ुर्सत है, बाय बोलने की नहीं… उसी आधे सेकंड में बाय बोल देती तो मैं फ़ोन तो आख़िर में काट ही देता।  फिर उसकी बातें! हड़बड़ में ख़ून कौन करता है… कैसे अजीब मेटफ़ॉर होते थे उसके कि उफ़, कि मतलब ख़ून करना कोई फ़ुर्सत और इत्मीनान से करने वाली हॉबी तो है नहीं। कि अच्छा, फ़्री टाइम में हमको पेंटिंग करना, कहानियाँ लिखना, किताबें पढ़ना, ग़ज़लें सुनना और ख़ून करना पसंद है। लेकिन ये बात भी तो थी कि उसके इश्क़ में पड़ना ख़ुदकुशी ही था और अगर वो तुम्हें एक नज़र प्यार से देख ले तो मर जाने का जी तो चाहता ही था। ऐसे में ख़ून करने की फ़ुर्सत का शाब्दिक अर्थ ना लेकर ये भी सोचा जा सकता था कि उसे इन दिनों सजने सँवरने की फ़ुर्सत नहीं मिलती होगी… कैज़ूअल से जींस टी शर्ट में घूम रही होती होगी। उसके गुलाबी दुपट्टे, मैचिंग चूड़ियाँ और झुमके अलने दराज़ में पड़े रो रहे होते होंगे। आईने पर धूल जम गयी होगी। ये भी तो हो सकता है। फिर मेरे दिमाग़ में बस हिंसक ख़याल ही क्यूँ आते हैं।

प्रेम का मृत्यु से इतना क़रीबी ताना बाना क्यूँ बुना हुआ है। ये सर दर्द क्या ऑक्सिजन की कमी से हो रहा है? उसकी बात आते मैं ठीक ठीक सोचना समझना भूल जाता हूँ। कभी कभी तो लगता है कि साँस लेना भी। वैसे शहर में प्रदूषण काफ़ी बढ़ गया है… फिर दिन भर की बीस सिगरेटें भी तो कभी न कभी अपना असर छोड़ेंगी… साँस जाने किस वजह से ठीक ठीक नहीं आ रही। मुझे शायद कुछ दिन पहाड़ों पर जा कर रहना चाहिए। किसी छोटे शहर में… जहाँ की हवा ताज़ी हो और लड़कियाँ कमसिन। कि जहाँ मर जाना आसान हो और जिसकी लाइब्रेरी में बैठ कर इत्मीनान से मैं अपना सुसाइड नोट लिख सकूँ। 
वो एक ख़लल की तरह आयी थी ज़िंदगी में…छुट्टी के दिन कोई दोपहर दरवाज़ा खटखटा के नींद तोड़ दे, वैसी। बेवजह। अभी भी न उसके रहने की कोई ठोस वजह है, न उसके चले जाने पर कोई बहुत दुःख होगा। जैसे ज़िंदगी में बाक़ी चीज़ें ठहर गयी हैं… वो भी इस मरते हुए कमरे की दीवार पर लगा वालपेपर हो गयी है… किनारों से उखड़ती हुयी। पुरानी। बदरंग। सीली। उसके रहते कमरे का उजाड़ ख़ुद को पूरी तरह अभिव्यक्त भी नहीं कर पाता है। न मैं कह पाता हूँ उससे… इस बुझती शाम में तुम यहाँ क्या कर रही हो…तुम्हें कहीं और होना चाहिए… यहाँ तुम्हारी ज़रूरत नहीं है…

उसके आने का कोई तय समय नहीं होता और ये बात मुझे बेतरह परेशान करती है कि न चाहते हुए भी मुझे उसका इंतज़ार रहता है। उसके आने की कोई वजह भी नहीं होती तो मैं मौसम में उसके आने के चिन्ह तलाशने लगा हूँ… कि जैसे एक बेहद गर्म दिन वो सबके लिए क़ुल्फ़ी और मेरे लिए चिल्ड बीयर का एक क्रेट ले आयी थी… आइस बॉक्स के साथ। उसे याद भी रहता था कि मुझे किस दुकान का कैसा नमकीन पसंद है। कभी कभी वो यूँ ही मेरे घर के परदे धुलवा देती, चादरें बदलवा देती और कपड़े ड्राईक्लीन करवा देती। लेकिन इतना ज़्यादा नहीं कि उसकी आदत लगे लेकिन इतना कम भी नहीं कि उसका इंतज़ार न हो। 
कभी कभी वो महीनों व्यस्त हो जाती। उसका कोई इवेंट होता जो कि आसमान से उतरे लोगों के लिए होता। उनकी ख़ुशी के सारे इंतज़ाम करते हुए वो एकदम ही मुझसे मिलने नहीं आती। बस, कभी बर्थ्डे पर केक भिजवा दिया। कभी नए साल पर फूल। लेकिन ख़ुद नहीं आती। मुझे समझ नहीं आता मैं इन चीज़ों पर नाराज़ रहूँ उससे या कि ख़ुश रहूँ कि अपनी व्यस्तता में भी उसे मेरा ध्यान है। 
वो व्यस्त रहती थी तो ख़ुश रहती थी। सुबह से शाम तक काम और प्रोजेक्ट ख़त्म होने के बाद के पैसों से ख़ूब घूमना। चीज़ें ख़रीदना। फिर नए प्रोजेक्ट शुरू होने के पहले के दो चार दिन एकदम ही परेशान हो जाती थी… कि जैसे भूल ही जाएगी लिखना पढ़ना। देर रात तक विस्की और फिर सुबह उठने के साथ फिर से विस्की। खाना खाती नहीं थी कि उल्टी… ऐसी लाइफ़स्टाइल क्यूँ थी उसकी पता नहीं। फिर मैं क्या था उसका, वो भी पता नहीं। सिर्फ़ एक कमरा जो हमेशा उसकी दस्तक पर खुलता था… दिन रात, सुबह… किसी भी मौसम… किसी भी मूड मिज़ाज माहौल में… रहने की इक तयशुदा जगह… उम्र का कोई पड़ाव… 
एक दिन मुझे असाइलम का डेफ़िनिशन समझा रही थी… ‘पागलखाना न होता तो पागलों को जान से मार देते लोग… या कि पागल लोग पूरी दुनिया को इन्फ़ेक्ट कर देते… पागल कर देते… असाइलम यानी कि जहाँ लौट कर हमेशा जाया जा सके… जैसे विदेशों में मालूम, आपके देश की एम्बसी होती है… पनाह… जहाँ जाने की शर्त न हो… असाइलम… तुम… कि तुम मेरा असाइलम हो।’ 
काश कि वो दुनिया की किसी डेफ़िनिशन से थोड़ी कम पागल होती। कि मैं ही बता पाता उसे, कि तुम पागल हो नहीं… थोड़ी सी मिसफ़िट हो दुनिया में… लेकिन ऐसा होना इतना मुश्किल नहीं है। कि तुम मेरे लिए ठीक-ठाक हो। 

कि मुझे तुम्हारा असाइलम नहीं… तुम्हारा घर होना है।

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और उन राजकुमारों का क्या? वे भी तो कभी सोचते होंगे कि कोई बहादुर राजकुमारी आएगी और उन्हें उनकी बोरिंग ज़िंदगी से बचा लेगी। जिससे मिलने का ख़याल ऑफ़िस के पॉवर पोईंट प्रेज़ेंटेशन को भी थोड़ा एनर्जी, रंग और ऐनिमेशन से भरेगा। कोई जो वाइल्ड हो…क्रेज़ी थोड़ी सी…कभी फ़्राइडे की शाम फ़ोन करे कि मैं बाइक पर इंतज़ार कर रही हूँ तुम्हारा…चलो जल्दी, हम रोड ट्रिप पर जा रहे हैं, और वो मीटिंग से चुपचाप निकल ले, बॉस को टेक्स्ट कर के…इमर्जन्सी कॉल है। जाना पड़ेगा। प्रिन्सेस जो जिरहबख़्तर नहीं फ़ुल बाइकिंग गियर पहने। व्हिस्की पीने में सारे दोस्तों को पीछे छोड़ सके। किसी भी अजनबी इंसान से बात कर ले। बारिश में माचिस से सिगरेट जलाना आये जिसे। ख़तरनाक वाली राजकुमारी। आए कभी…

हैं…उन लड़कों का क्या कि बेचारे वे ही हमेशा राजकुमारी को ड्रैगन से बचाते रहें? ये तो नाइंसाफ़ी है ना। ऐसी राजकुमारियाँ थोड़ी ज़्यादा हों इस दुनिया में और मासूम राजकुमार उनके होने पर यक़ीन करें…इसी दुआ में 🙂

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