वो कि ख़ुशबू की तरह फैला था मेरे चार-सू
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था
याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी ‘अदीम’
भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था
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बता ज़िंदगी। ऐसा ही होगा क्या। हमेशा। कि हम अकेले रह जाएँगे किसी के होने और ना होने का हिसाब करते हुए? बहुत दिन इंतज़ार करने के बाद इक सुबह सोचते कि अब शायद एक तारीख़ मुक़र्रर करनी होगी, जिस तारीख़ तक उसे याद किया जाए और फिर भूलने की क़वायद शुरू हो। कि कितना डर लगता है ऐसी किसी तारीख़ से।
हमने कौन सा कुनबा माँग लिया? मतलब, भगवान क़सम, हमसे ज़्यादा लो-मेंट्नेन्स होना नामुमकिन है। दोस्ती में, प्रेम में… किसी भी और रिश्ते में। हथेली फैला कर कुछ नहीं माँगते। जितना सा हक़ है, उससे एक ज़रा ज़्यादा नहीं माँगा कभी, भले कम में ही एडजस्ट कर लिए कभी ज़रूरत पड़ी तो। हमेशा सामने वाला का हालत समझे, रियायत बरते। हम तो दर्द मरते रहे लेकिन परिवार से भी कभी अपने हिस्से का वक़्त, प्रेम, मौजूदगी के लिए लड़ाई नहीं की। एक ग्लास पानी माँग कर नहीं पिया कभी।
यही तुम्हारा न्याय है? किसी को हमारी याद नहीं आएगी और हम बिसरते जाएँगे इंतज़ार में। कितनी बार यही बात दोहरायी जाएगी? किसी को दूर जाना है तो क़रीबी होने के बाद क्यूँ? फ़ासला हमेशा से क्यूँ नहीं रख सकते। चाह इतनी ही है ना कि कभी एक फ़ोन करने के पहले सोचना ना पड़े। कि whatsapp पर भेजा कोई मेसेज महीने भर तक ग्रे ना रहे… नीले टिक्स आ जाएँ कि पढ़ लिया गया है। कि बातें रहें। थोड़ी सी सुख की, थोड़ी सी दुःख की। शहर के मौसम, पढ़ी गयी कविताएँ और जिए गए दिन, दोपहर, शामें रहें… थोड़ी बारिश, थोड़ा विंडचाइम की आवाज़ भेज सकूँ। फिर जाना है तो कह क्यूँ नहीं सकते? कितना मुश्किल है इतना भर कह देना कि आजकल हम बहुत व्यस्त होते जा रहे हैं… या कि एक आख़िरी बार बहुत सी बात कर ली जाए… बात जिसमें अलविदा का स्वाद हो… खारा। बात करते हुए गला रूँध जाए। आँख बेमौसम भर आए। इतना सा अलविदा ही तो माँगे, हम तो किसी के रुकने तक का नहीं कहते।
हमें कब आएगा अपने दिल को किसी इमोशन-टाइट-प्रूफ़ डिब्बे में बंद करके दफ़ना देना। हम कब हो सकेंगे ऐसे कि अपनी तन्हाई के साथ बिना रोए कलपे रह सकें। इस शहर की चुप्पी को आत्मसात कर सकें। सह सकें दुःख।
बता ज़िंदगी। खेलती ही रहोगी हमारे काँच दिल से? टूटता ही रहेगा, उम्र भर? दुखता ही रहेगा ऐसे? हम कब सीखेंगे अपने हालात के साथ सामंजस्य बिठाना।
कि इससे अच्छा तो कर लिए होते गुनाह कुछ। तोड़ा होता बेरहम होकर दिल किसी का। किसी की दोस्ती ठुकरायी होती। किसी के स्नेह पर सवाल किए होते। किसी को आदर की जगह दुत्कार दिए होते। कमसेकम ये तो लगता कि ये हमारी सज़ा है।
निर्दोष होने का गुनाह है हमारा?