एक दिन सफ़ेद फूलों का मौसम ख़त्म हो जाएगा। फिर मैं पूरे साल इंतज़ार करूँगी उनके आने का। कि कुछ नहीं रहता हमेशा के लिये, सिवाए इंतज़ार के। इंतज़ार हमेशा रहता है। सीने में दुखता। लिखते हुए उँगलियों में रगड़ खाता। आँखों से बहता। कितने रंग का तो होता है इंतज़ार।
मैं जाने कैसा अजीब सपना देखती हूँ। आज सुबह से दोपहर तक सोती रही और एक लम्बा सपना देखा। तुम्हारे शहर का। तुम्हारा। तुम्हारी बीवी और तुम्हारी बेटी भी थे सपने में। मेरे कुछ घर वाले भी। लेकिन सब लोगों के होने के बावजूद भी उस सपने में बस मैं और तुम थे। हँसते। जैसे कि कुछ बचा हुआ हो हमारे बीच। कोई शहर, ज़िंदा।
तुम्हें सपने में देखना ऐसा सुख है जो दुःख लिए आता है डुबोने के लिए। मैं जितना ही चाहती हूँ कि सहेज लूँ ज़रा तुम्हारी हथेली का स्पर्श, सोफ़े पर के सफ़ेद कुशन की नर्माहट या कि तुम्हारी आँखें। मगर याद कुछ नहीं रहता है।
क्यूँ लगता है कि तुम आसपास हो। इस देश या इस शहर में या कि इस दिल में ही। ये कैसा प्रेम है कि ख़ालीपन में उगता है। कैसी हूक है कि लिखने को नहीं आती। दुखने को आती है बस।
कुछ ख़त्म नहीं होता लिख कर। ना दुःख। ना तन्हाई। ना छलावा। तुम्हारी चाह कोई ऐसी अद्भुत वस्तु की लालसा तो है नहीं कि जिसके लिए तपस्या करनी पड़े। ये तो आसान होना था ना। जैसे कि फूल थोड़ी सी धूप माँगे, खेत ज़रा सी बारिश और गरमियों में नानीघर जाने का प्लान बने। ये तो इतना स्वाभाविक था…नैचुरल। हम जाने क्या माँग बैठते हैं कि ईश्वर का हिसाब गड़बड़ हो जाता है।
मैं बस इतना चाहती हूँ कि ज़रा कम दुखे। हालाँकि अब लगता है कि शायद डॉक्टर को दिखाने की नौबत आ गयी है। कोई दुःख है कि एकदम ही छलका छलका रहता है। ज़रा ज़रा सी बात पर आँख भर आती है। फ़िल्म देख कर रो देती हूँ। कविता पढ़ कर कलप जाती हूँ। मौसम भी अच्छा हो जाए तो जैसे दुखने लगता है।
मगर दिक़्क़त ये है कि मुझे नींद की गोलियाँ नहीं मृत्यु की गोलियाँ चाहिए। मैं सोना नहीं, मर जाना चाहती हूँ।
सुबह उठ कर सोचूँगी कि लिख सकूँ एक शहर जिसमें कि मेरे जीने भर को सुख हो और मेरे हँसने भर को दोस्त।
पढ़ते समय मन की आवाज़ में व्याकुलता ने जन्म ले लिया था। सदृश्य वर्णन!
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